ऑनलाइन योग के जमाने में परंपरागत योग

ऑनलाइन योग के जमाने में परंपरागत योग

योग के इतिहास में नया अध्याय जुड़ गया। आधुनिक युग में संभवत: पहली बार नामचीन योगियों ने बीते तीन-चार महीनों में ऑनलाइन माध्यमों के जरिए इतने बड़े पैमाने पर लोगों को योग करने को प्रेरित किया और योग की विभिन्न पहलुओं पर राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा की। विशेष हालात के कारण बनी परिस्थितियों का यह उज्जवल पक्ष है। पर ऑनलाइन योग शिक्षा का चलन परंपरागत योग के संन्यासियों को खटक रहा है। उन्हें लगता है कि योग विद्या के लिए यह चलन घातक साबित होगा। वैज्ञानिक संतो की वर्षों-वर्षों की मेहनत पर पानी फिर सकता है। हमें याद रखना चाहिए कि योग इतिहास या भूगोल पढ़ाने जैसा नहीं है।

उधर, कैवल्य योग पद्धति से की जनक अमेरिका की डॉ अल्लाना कैवल्य की खुशी का ठिकाना नहीं है। इसलिए कि ऑनलाइन योग को लेकर उनकी भविष्य सत्य होती दिख रही है। उन्होंने योग के इतिहास में पहली बार सन् 2005 में आस्ट्रेलिया और अन्य देशों में एक साथ ऑनलाइन शिक्षण-प्रशिक्षण की शुरूआत करते हुए कहा था कि ऑनलाइन योग शिक्षा का ही भविष्य है। तब भारत में इस बात को हवा-हवाई माना गया था। विकसित देशों में भी इस बात को तवज्जो नहीं मिली थी। हाल के वर्षों में हाई स्पीड इंटरनेट और उपयुक्त इलेक्ट्रानिक उपकरणों की उपलब्धता के बावजूद ऑनलाइन योग शिक्षा को वैकल्पिक आधार पर ही स्वीकार्यता मिली थी। पर अब हर तरफ ऑनलाइन योग की धूम होने की वजह से उन्हें अपनी पीठ थपथपाने का मौका मिला है।

भारत के वैज्ञानिक संतों की कठिन तपस्या की वजह से विज्ञानसम्मत योग आज महत्वपूर्ण मुकाम पा चुका है। ऐसे संतों की त्याग-तपस्या पर मनन करने पर प्रथम दृष्टया यही बात मानस पटल पर उभरती है ऑनलाइन योग शिक्षा विज्ञानसम्मत और शास्त्रसम्मत योग जैसा परिणाम देने में सर्वथा असमर्थ होगी। इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। वेदांत दर्शन के महान चिंतक और विचारक स्वामी विवेकानंद को उनकी योग की किसी व्याख्या को लेकर चुनौती मिल जाए, वह भी बीसवीं सदी के शुरूआती दौर में, यह कोई मामूली बात नहीं थी। पर ऐसा हुआ। कैवल्यधाम, लोनावाला के संस्थापक और वैज्ञानिक संत स्वामी कुवल्यानंद ने यह कहते हुए स्वामी विवेकानंद को चुनौती दे दी थी कि उनकी यह मान्यता सही नहीं है कि बहत्तर हजार नाड़ियों में प्रमुख इड़ा और पिंगला नाड़ियां सुषुम्ना नाड़ी के सांवेदिक और प्रेरक पथ हैं।

दरअसल, “लेक्चर ऑन राजयोग” पुस्तक में स्वामी विवेकानंद ने लिखा है, मेरूरज्जू (स्पाइनल कॉर्ड) स्थित सांवेदनिक और प्रेरक तंतु ही योगियों की इड़ा और पिंगला है। ये ही प्रमुख पथ हैं, जिनमें से होकर सांवेदनिक और प्रेरक धाराएं जाती हैं। स्वामी जी की यह पुस्तक जब प्रकाशित हुई थी, उसके पहले ही डॉ रेले की पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी। डॉ रेले ने लिखा था कि विभिन्न शास्त्रों में इड़ा यानी और पिंगला नाड़ियों के उल्लेख से पता चलता है कि ये अनुकंपी तंत्र के गंडकित रज्जू यानी गैंगलिएटेड कॉर्ड हैं, जो पृष्ठवंश या भर्टिब्रा की दोनों तरफ होता हैं।

स्वामी कुवल्यानंद स्वामी विवेकानंद का बहुत आदर करते थे। आजीवन उनकी विराट-शक्ति को स्वीकारते रहे। पर शरीर की प्रमुख तीन नाड़ियों के बारे में उनकी मान्यता को खारिज करने में तनिक भी संकोच नहीं किया। इसका आधार उनका खुद का शोध था। उनका कहना था कि स्वामी जी की बात न तो इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के बारे में मूल संस्कृत के ग्रंथों से मेल खाती है और न ही उनके खुद के अध्ययन से भी सही जान पड़ती है। उन्होंने इस मामले में उस जमाने के चर्चित वैज्ञानिक और कुंडलिनी तंत्र पर चर्चित पुस्तक “मिस्टिरियस कुंडलिनी” के लेखक एचडी रेले की व्याख्या को भी सिरे से नकार दिया था। उनका कहना था कि सुषुम्ना नाड़ी ही आधुनिक चिकित्सा विज्ञान उल्लिखित स्पायनल कार्ड है और बाकी नाड़ियां आधुनिक शरीरशास्त्र में बताए गए नर्व हैं।

स्वामी कुवल्यानंद ने महान संतों और वैज्ञानिकों की बात काटकर अपने वैज्ञानिक शोध के परिणाम को ज्यादा महत्वपूर्ण माना तो इससे समझा जा सकता है कि उस जमाने के योगाचार्चों के लिए योग शिक्षा के क्या मायने रहे होंगे कि बडे बड़ों को चुनौती देने की शक्ति मिली होगी। स्वामी कुवल्यानंद के तुरंत बाद के वैज्ञानिक संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने भी प्राणायाम पर काफी शोध किया। भारत में ही नहीं, दुनिया के बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाओं में। उनका कहना था, “योग की शुरूआत ही प्राणायाम से होती है। इसके पहले के जितने भी अभ्यास हैं, सब योग की तैयारी के लिए हैं।“

स्वामी कुवल्यानंद शास्त्रों का ज्ञाता होने के बावजूद जब तय कि वे शारीरिक बल संवर्द्धन की भारतीय पद्धतियों का आधुनिकीकरण करके उसका शिक्षा योजना में समावेश करेंगे और शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से योग का आधुनिक विज्ञान से समन्वय कर अध्यात्म और विज्ञान में अद्वैत सिद्ध करेंगे तो जिज्ञासु शिशु जैसे बन गए थे। नतीजा हुआ कि योग शास्त्र के विभिन्न आयामों पर एक छात्र की तरह अध्ययन किया और प्रयोगशालाओं में अनुसंधान किए। यह सिलसिला जीवन पर्यंत चलता रहा। स्वामी कुवल्यानंद कहा करते थे कि योग को उपचारात्मक विधि के रूप में अपनाया जाना चाहिए। इसलिए कि बीमारियों का मन से गहरा संबंध है और योग मन का प्रबंधन करने में सक्षम है। योग का संबंध ईश्वर से अधिक मन से है।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने साठ के दशक में योग के गूढ़ रहस्यों को शोधकर और उसे विज्ञान की कसौटी पर कसकर जनता को सुलभ कराया तो भारत ही नहीं, दुनिया के कोने-कोने में विज्ञानसम्मत यौगिक विधियों को स्वीकार्यता मिल गई थी। उनका भी मत था कि अस्सी फीसदी बीमारियों का संबंध मन से होता है। इसलिए मन के प्रबंधन पर खूब जोर दिया और योग निद्रा जैसी यौगिक विधि का आविष्कार किया। भारत सहित अनेक देशों में योग निद्रा पर अनुसंधान हुआ और पाया गया कि मन का प्रबंधन करके अनेक घातक बीमारियों से मुक्ति दिलाने में योग निद्रा की बड़ी भूमिका हो सकती है। अब तो हजारों उदाहरणों से यह बात साबित भी हो चुकी है।

 दुनिया भर में अपने देश के वैज्ञानिक संतो के कारण प्राणायाम ही नहीं, समग्र रूप से परंपरागत योग जितना समृद्ध होता गया, उसे हॉट योगा, पावर योगा और अब ऑनलाइन योगा के जमाने में बनाए रखने की बड़ी चुनौती है। पर उससे भी बड़ी चुनौती ऑनलाइन योग से है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं। उनके आलेख ushakaal.com पर भी पढ़े जा सकते हैं।)

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